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About Chhattisgarh/छत्तीसगढ़ के बारे मे एक नज़र
छत्तीसगढ़ केंद्र भारत का एक राज्य है , जो मध्यप्रदेश से अलग हो कर १ नवम्बर २००० को बना। छत्तीसगढ़ कि राजधानी रायपुर है। छत्तीसगढ़ भारत का सबसे बड़ा १० वा राज्य है जिसका क्षेत्रफल ५२,१९९ वर्ग मीटर है। छत्तीसगढ़ को धान का कटोरा (Rice of Bowl) नाम से भी जाना जाता है। छत्तीसगढ़ के पढ़ोसी राज्य उत्तर और उत्तर-पश्चिम में मध्यप्रदेश का रीवां संभाग, उत्तर-पूर्व में उड़ीसा और बिहार, दक्षिण में आंध्र प्रदेश और पश्चिम में महाराष्ट्र राज्य स्थित हैं।
राज्य का ४४ % भाग जंगल से घिरा है। दक्षिण और उत्तर भाग पहाड़ी है जबकि केन्द्रीय भाग समतलीय उपजाऊ है। यहाँ साल, सागौन, साजा और बीजा और बाँस के वृक्षों की अधिकता है। धान की भरपूर पैदावार के कारण इसे धान का कटोरा भी कहा जाता है। 
 
राज्य कि मुख्य नदी महानदी है और उसकी सहायक नदियों का मैदानी क्षेत्र और दक्षिण में बस्तर का पठार। राज्य की प्रमुख नदियाँ हैं - महानदी, शिवनाथ, खारुन, पैरी , इंद्रावती तथा आरपा नदी।

छत्तीसगढ़ का इतिहास
छत्तीसगढ़ यहा के आदमी के चाह से परे मध्यप्रदेश के सीमा से लगे १ नवम्बर २००० को भारत का २६ वा राज्य बनकर सामने आया।छत्तीसगढ़ प्राचीनकाल के दक्षिण कोशल का एक हिस्सा है और इसका इतिहास पौराणिक काल तक पीछे की ओर चला जाता है। पौराणिक काल का 'कोशल' प्रदेश, कालान्तर में 'उत्तर कोशल' और 'दक्षिण कोशल' नाम से दो भागों में विभक्त हो गया था इसी का 'दक्षिण कोशल' वर्तमान छत्तीसगढ़ कहलाता है। इस क्षेत्र के महानदी का मत्स्य पुराण, महाभारत के भीष्म पर्व तथा ब्रह्म पुराण के भारतवर्ष वर्णन प्रकरण में उल्लेख है। वाल्मीकि रामायण में भी छत्तीसगढ़ के बीहड़ वनों तथा महानदी का स्पष्ट विवरण है। स्थित सिहावा पर्वत के आश्रम में निवास करने वाले श्रृंगी ऋषि ने ही अयोध्या में राजा दशरथ के यहाँ पुत्र्येष्टि यज्ञ करवाया था जिससे कि तीनों भाइयों सहित भगवान श्री राम का पृथ्वी पर अवतार हुआ। राम के काल में यहाँ के वनों में ऋषि-मुनि-तपस्वी आश्रम बना कर निवास करते थे और अपने वनवास की अवधि में राम यहाँ आये थे।
इतिहास में इसके प्राचीनतम उल्लेख सन 639 ई० में प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्मवेनसांग के यात्रा विवरण में मिलते हैं। उनकी यात्रा विवरण में लिखा है कि दक्षिण-कौसल की राजधानी सिरपुर थी। बौद्ध धर्म की महायान शाखा के संस्थापक बोधिसत्व नागार्जुन का आश्रम सिरपुर (श्रीपुर) में ही था। इस समय छत्तीसगढ़ पर सातवाहन वंश की एक शाखा का शासन था। महाकवि कालिदास का जन्म भी छत्तीसगढ़ में हुआ माना जाता है। प्राचीन काल में दक्षिण-कौसल के नाम से प्रसिद्ध इस प्रदेश में मौर्यों, सातवाहनों, वकाटकों, गुप्तों, राजर्षितुल्य कुल, शरभपुरीय वंशों, सोमवंशियों, नल वंशियों, कलचुरियों का शासन था। छत्तीसगढ़ में क्षेत्रीय राजवंशो का शासन भी कई जगहों पर मौजूद था। क्षेत्रिय राजवंशों में प्रमुख थे: बस्तर के नल और नाग वंश, कांकेर के सोमवंशी और कवर्धा के फणि-नाग वंशी। बिलासपुर जिले के पास स्थित कवर्धा रियासत में चौरा नाम का एक मंदिर है जिसे लोग मंडवा-महल भी कहा जाता है। इस मंदिर में सन् 1349 ई. का एक शिलालेख है जिसमें नाग वंश के राजाओं की वंशावली दी गयी है। नाग वंश के राजा रामचन्द्र ने यह लेख खुदवाया था। इस वंश के प्रथम राजा अहिराज कहे जाते हैं। भोरमदेव के क्षेत्र पर इस नागवंश का राजत्व 14 वीं सदी तक कायम रहा।
छत्तीसगढ़ की भाषा
मुख्य भाषा :- छत्तीसगढ़ी
छत्तीसगढ़ की मुखियाता ग्रामीण भाषा छत्तीसगढ़ी है तथा शहरी और प्रशासनिक भाषा हिन्दी है। छत्तीसगढ़ी भाषा, हिन्दी का परिवर्तित रूप है, जिसके स्वयं के कुछ नियम है। छत्तीसगढ़ी को “खलताही” और “लारीर” के नाम से भी जाना जाता है जिसका मुखियाता उपयोग पहाड़ी क्षेत्र मे होता है।
लोकगीत और लोकनृत्य
छत्तीसगढ़ के गीत दिल को छु लेती है यहाँ की संस्कृति में गीत एवं नृत्य का बहुत महत्व है। छत्तीसगढ़ के प्रमुख और लोकप्रिय गीत है - सुआगीत, ददरिया, करमा, डण्डा, फाग, चनौनी, बाँस गीत, राउत गीत, पंथी गीत।
सुआ, करमा, डण्डा, पंथी गीत नाच के साथ गाये जाते है।
सुआ गीत करुण गीत है जहां नारी सुअना (तोता) की तरह बंधी हुई है। सुआ का अर्थ होता है मिट्ठू या तोता । सुआगीत नारियों और मुख्य रुप से गोड़ आदिवासी नारियों का नाच गीत है । नारियाँ दीपावली के अवसर पर आंगन के बीच में पिंजरे में बंद हुआ सुआ को प्रतीक बनाकर (मिट्टी का तोता) उसकेचारो ओर गोलाकार वृत्त में नाचती गाती जाती हैं। एक छोटी टोकरी जिसे चुरकी या दौरी कहा जाता है में धान भरकर, धान के उपर मिट्टी से बनाये, हरे रंग से चित्रित सुआ प्रतिस्थापित कर दिया जाता है । नारियाँ चुरकी के चारों ओर गोल बनाकर खड़ी हो जाती है । फिर नीचे झुककर क्रमशः एकबार दाहिनी ओर दूसरी बार बायीं ओर ताली बजाती है । साथ ही उसी तरफ दाहिनी तथा बांया पैर भी उठा-उठाकर रखती है । एक टोली गाना गाती है । दूसरी टोली उस गीत को दोहराती है । तालियां बजाकर गायें जाने वाले इस गीत के साथ ककिसी विशेष वाद्य की आवश्यकता नहीं होती है ।

छेरछेरा पुन्नी और होली पर गांव में घर-घर और चौपाल में डंडा नाच कर रुपये-धान मांगते हैं । इस गीत के साथ जो गीत गाये जाते है, उसे डंडा गीत और कुई डंडा भी कहते है कहते है । डंडा नाच केवल पुरुषों का नृत्य है, वर्षा काल के फसल कट जाने पर ही यह नृत्य प्रारम्भ होता है । इसके लिए लगभग 2 - 5 युवकों की टोली होती है । ये रंग बिरंगे वस्त्र धारण कर मयूर पंख आदि से अपना श्रृंगार करते हैं । प्रत्येक युवक के हाथ में लगभग आधी मीटर के लंबाई के डंडे रहते है । गोल घेरे रहकर नृत्य प्रारंभ होता है, घेर के मध्य में अगूवा तथा वाद्य मंडली वाले रहते है । राग, ताल एवं लय पर नर्तक के पग थिरक उठ पड़ते है, तथा कुछ समय के अन्तर पर वे सब एक दूसरे डंडे पर प्रहार करते है । नृत्य के आधे गीत को एक व्यक्ति गाते है, तथा अन्य उसे दोहराते है । नृत्य की गति परिवर्तन अगूवा की हुकारु मारना (अ.हू.ई.की ध्वनि) से होता है। इस अवसर पर मांदर, झांझ आदि उपयोग में लाये जाते है । अगुवा जितने बार कुई-सुई की हॉक लगाता है , भीतर के नर्तक बाहर और बाहर के नर्तक भीतर, नाचते कूदते भीतर-बाहर होते हैं । नाचने में पांव को पूरे जमीन पर रखने के साथ पहले दाहिने पांव पिंडली तक उठाते हैं, फिर बायॉं पॉंव |

पंथिनृत्य सतनामी समाज के लिए प्रसिद्ध है जो गुरु घसीदास बाबा के जन्म दिन के अवसर पर मांघिपूर्णिमा के समय किया जाता है। पंथिनृत्य को जैस्तम्भ के चरो ओर खड़े होकर किसी प्रसिद्ध त्योहार पर किया जाता है। इसके प्रमुख वाद्य मांदर तथा झांझ है । मांदर में थाप होता है - धिन-ना, धिन-ना, ता-धिन गीत के बोल प्रारंभ होते हैं - "बाबा घासीदास हो, बाबा घासीदास" नर्तक दल पैर के पंजों को बारी-बारी मंद गति से घुंघरु बजाते हैं । गीत की पंक्तियां द्रुत होती हैं । मांदर के बोल गति लेते हैं । नर्तक दल कमर पर रखो हाथों को सामने कर आगे-पीछे करते सिर हिलाते पहले पंक्तिबद्ध, वृत्ताकार, अर्द्धचंद्राकार, पिरामीड बनाते धरती में पीठ के बल लेटकर, घुटने टेककर नाचते हैं । नृत्य की बानगी, लयात्मकता के साथ इस भांति एकाकार हो उठता है कि दर्शक घुंघरु और मांदर में भिन्नता तो कर ही नहीं पाता |
राऊत गीत दिपावली के समय गोवर्धन पूजा के दिन, कार्तिक शुक्ल देवोत्थान एकादशी से कार्तिक पूर्णिमा तक राऊत जाति के द्वारा गाया जाने वाला गीत है।यह वीर-रस से युक्त पौरुष प्रधान गीत है जिसमें लाठियो द्वारा युद्ध करते हुए गीत गाया जाता है। इसमें तुरंत दोहे बनाए जातें हैं और गोलाकार वत्त में धूमते हुए लाठी से युद्ध का अभ्यास करते है। सारे प्रसंग व नाम पौराणिक से लेकर तत्कालीन सामजिक / राजनीतिक विसंगतियों पर कटाक्ष करते हुए पौरुष प्रदर्शन करते है। रावत जाति का आराध्य कछान है । गांव के गौ-चरवाहे की पहचान रावत जाति देवोत्थान एकादशी को अपने कछान देव की आराधरन कर गांव के पशुओं के दुधारु, स्वस्थ होने के लिए प्रार्थना करता है और फिर जितने गांव के दुधारु गाय होते हैं उनमें सुहाई-फ्लाश की जड़ी की माला बांधते है । इस आशीर्वाद के साथ कि -
धन गोदानी भुइयां पावीं, पावीं हमर असीस,
नाती पूत ले घर भर जावे, जीवी लाख बरीस
चार महीना गाय चरायेन, खायेन मही के झोर,
आइस कार्तिक महिना लक्ष्मी, घूटेन तो बिहोर ।

रावत मड़ई के लिए विशेष सजते हैं - सिर पर लंबे धोती का रंगीन पगड़ी बांधते हैं । पगड़ी को सजाते हैं । मुंह में हल्दी, मुरदार शंख, पाउडर और चिकमिकी लगाते हैं । शरीर में रंगीन रावत बन्डी के उपर कौड़ियों से गूंथा जाकिट पहनते हैं । जाकिट में कौड़ियों की लंबी रस्सीनुमा झूल होते हैं । रंगीन धोती को घुटने तक पहनते हैं । घुंघरु के साथ पदवस्त्रा धरण करते हैं । रावत मड़ई के पूर्व सजे-धजे चितैरे दिखते हैं ।
फसल घर में आने के बाद देवताओं के प्रति आभार एवं कृतज्ञता ज्ञापन भारतीय पारंपरिक धरोहर है । गौरा के माध्यम से गांव के सभी मान्य देव-देवियों को गौरा के द्वारा सम्मानित करते हैं । गौरा के दो रुप छत्तीसगढ़ में है । बइठ गौरा और ठाढ़ गौरा । पुरुष प्रधान लोक-नृत्य में ठाढ़ गौरा का प्रचलन है । इसमें पूजा-प्रणाली, फूल कूटना, देवता भरना, माटी कोड़ना, मूर्ति बनाना, बारात, परधनी, सेवा और विसर्जन के सभी अंग समान रुप से संपादित होते हैं । ठाढ़ गौरा में गेयता नहीं होती । वाद्य में भिन्नता होती है । वाद्य-ढोल - बीजा के गोले की खोखला जिसके दोनों सिरों पर चमड़ा होता है । बांयें भाग को लकड़ी से और दाहिने को हाथ से बजाते हैं ।

गान छत्तीसगढ़ अपने पारंपरिक गाने के लिए बहुत धनी है। छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध गीत है:- सोहार, बिहाव, और पथोनि। बच्चे पैदा होने की खुशी मे सोहार गीत गया जाता है। बिहाव गीत को शादी के समय गया जाता है। बिहाव गीत के प्रमुख है – चुलमाटी, तेलमाटी, मयमौरी, नहदौरी, परघनी, भडोनी, और भी जैसे विदाई इत्यादि। पठौनी गाने को गऔना के समय गाया जाता है। गऔना मे लड़की को माइके से ससुराल ले जाया जाता है। यहा मनोरंजन के लिए गम्मत करते है जो के यहा बहोत प्रसिद्ध है और रंगमंच के नाम से भी इसे जाना जाता है।
खेल
छत्तीसगढ़ के प्रमुख खेल है:-अटकन-बटकन, फुगड़ी, लंगड़ी, छू छुओवल, खुडुवा (कबड्डी), डंडा पचरंगा.

छत्तीसगढ़ी बाल खेलों में अटकन-बटकन लोकप्रिय सामूहिक खेल है । इस खेल में बच्चे आंगन परछी दुवारी में बैठकर, गोलाकार घेरा बनाते है । घेरा बनाने के बाद जमीन में हाथों के पंजे रख देते है । ए क लड़का अगुवा के रुप में अपने दाहिने हाथ की तर्जनी उन उल्टे पंजों पर बारी-बारी से छुआता है । गीत की अंतिम अंगुली जिसकी हथेली पर समाप्त होता वह अपनी हथेली सीधीकर लेता है । इस क्रम में जब सबकी हथेली सीधे हो जाते है, तो अंतिम बच्चा गीत को आगे बढ़ाता है । इस गीत के बाद एक दूसरे के कान पकड़कर गीत गाते है -
अटकन बटकन दही चटाकन, लउहा लाटा बन में कांटा ।
तुहुर तुहुर पानी गिरय, सावन म करेला फूटय ।
चल चल बेटी गंगा जाबो, गंगा ले गोदाओरी ।
पाका पाका बेल खाबो, बेल के डार टूटगे, भरे कटोरा फूटगे ।।
तथा कुछ चुने और शेष खिलाड़ी इस गीत - "अतल के रोटी पतल के धान, एकर लंगड़ी धर बुची कान ।" गीत के साथ एक दूसरे का कान धरते है और पुनः गीत गाते है -
कऊ-मेऊ मेकरा के जाला, फूटगे कोहनि के आला ।

फुगड़ी बालिकाओं द्वारा खेला जाने वाला फुगड़ी लोकप्रिय खेल है । चार, छः लड़कियां इकट्ठा होकर, ऊंखरु बैठकर बारी-बारी से लोच के साथ पैर को पंजों के द्वारा आगे-पीछे चलाती है । थककर या सांस भरने से जिस खिलाड़ी के पांव चलने रुक जाता है वह हट जाती है - नाच के साथ निम्न गीत गाती है -
गोबर दे बछरु गोबर दे, चारो खूंटा ला लीपन दे ।
अपन खये गूदा गूदा, मोला देथे बीजा ।।
ए बीजा ला का करबो, रइ जाबो तीजा ।
तीजा के बिहान दिन, सर्र सर्र ले लुगरा ।।
हेर दे भवजी, कपाट के खीला, केंव-केंव नरियाही मंजूर के पीला ।
पाके बुदलिया राजा घर के पुतरी, खेलन दे फुगरी, फुगरी रे फाफा चाब दीहि चाटा ।।

फुन-फुन के साथ बालिकाएं अपने पैरों को दांया बांया, आगे-पीछे सरकाती हुई खेलती है । फुगड़ी के बीच में निम्न गीत गाती है -
बेल आई बेल आई कोन्हा म छबील बाई ।
मारेन मुटका, हेराबोन तल, पतरंगी छूटगे, छुवैया गंड़ी मोर ।

फुगड़ी खेलते समय जिस बालिका का हाथ जमीन को छूं जाता है, तब खिलाड़ी गाती है - भरे कराही, भर गे, हरही टूटी हटगे, फुगरी रे फाफा चाब दीहि चाटा ।।

डंडा पचरंगा डंडा पचरंगा गोल घेरे में खेला जाने वाला स्पर्द्धात्मक खेल है । गली में या मैदान में लकड़ी से गोल घेरा बना दिया जाता है । खिलाड़ी दल गोल घेरे के भीतर रहते है । एक खिलाड़ी गोले से बाहर रहता है । खिलाड़ियों के बीच लय बद्ध गीत होता है । गीत की समाप्ति पर बाहर की खिलाड़ी भीतर के खिलाड़ी किसी लकड़े के नाम लेकर पुकारता है । नाम बोलते ही शेष गोल घेरे से बाहर आ जाते है और संकेत के साथ बाहर और भीतर के खिलाड़ी एक दुसरे को अपनी ओर करने के लिए बल लगाते है, जो खींचने में सफल होता वह जीतता है ।